Tuesday, May 14, 2013

चौखट: (भाग-3)




(दो सहेलियों का नारी-विमर्श)
    अंजू
    लेकिन सखि!
यह चौखट क्यों होता इतना कठोर?

संजू
क्योंकि चौखट एक व्यवस्था है
कभी सामाजिक, राजनितिक
और .. सांप्रदायिक भी... ,
धार्मिक व्यवस्था में चौखट नहीं
लेकिन बना दिया गया है वहां भी.
तो सखि! समझो इसे अब ऐसे
चौखट है सामूहिक निर्धारण
और अपना आँचल यह,
वैयक्तिक एक प्रतीक है जैसे.
यह व्यवस्था यदि नारी के लिए
तो है व्यवस्था पुरुष के लिए भी.
नारी बाँध के रखती है
अपने जीवन का सारा प्यार
उल्लास, उमंग और मधुर स्मृतियाँ
अपने इसी आँचल के पल्लू में,
और मान-सम्मान इतना कि
सर पर बैठा रखती हैं.
आश्वस्त करती हैं प्रियतम को
यह सारा प्यार तुम्हारा
मैंने बाँध लिया इस आँचल में,
सारी प्रेम तपस्या तेरी
अब सिमट गया इस आँचल में.
इस आँचल में अब वह
केवल प्यार ही नहीं बांधती
व्रत-पूजन का, मंदिर, मजार का
प्रसाद, आशीष, शुभकामनये भी
रखतीं है इसी पल्लू में संभालकर.
आँचल यह सुहाग है, मर्यादा है
तो पयस्वनी का पय भी यही.
अब वह अबला जीवन नहीं,
सबला सदस्य है परिवार की,
कभी चखो यह स्वाद !
जब वह जीतती है ट्राफियां
लती हैं पदक, बटोरती है डिग्रियां.
आँचल में प्रकृतिप्रदत्त ऊर्जस्वी
दूध तो है आज भी, उसी से तो
पालती है वह, भावी पीढ़ी को
मानव को, मानवता के सूत्र को.

उसके गोदी का शिशु अब
होता है विकसित इसी आँचल से
छलक रहे पय का पान कर,
होकर पोषित जब होता है बड़ा,
तो माँ कहती है
मेरा आँचल यह, अब तू संभाल!
स्थानांतरित होते हैं अब दायित्व
वही आँचल अब बन जाती है–‘पगड़ी.
इस पगड़ी को बालक ढोता है
जवानी से बुढ़ापे तक, मृत्यु तक.
अब उसे रखनी है मान पगड़ी की
माँ के दूध की, विश्वास और वचन की,
क्योकि पगड़ी यह माँ ने दिया है
पवित्र विरासत है यह, प्यारी माँ की.
अब बन जाता यह त्रिक और त्रिकोण,
चौखट आँचल और पगड़ी का.
मिलकर तीनों मिलकर रचते हैं
एक सामाजिक, सास्कृतिक सोच,
व्यवस्था का सम्यक तानाबाना.
इस त्रिक की बुनावट
सरल भी होती है, जटिल भी
उलझन-आह्लाद, उल्लास-उमंग भी,
यह बंधन भी है और मुक्ति भी.
इसमें गूढता बस इतनी भर है कि
हमने इस त्रिक को समझा कितना?
जाना कितना? माना-अपनाया कितना?
जितना अपनाया उतना ही तो पाओगे
फिर तुलना किसी अन्य से क्यों?  
        
    करना हो तो करो स्वमूल्यांकन
अपने व्यवहार का, अपने आचरण का
सामाजिक, पारिवारिक, मानवीयमूल्यों में
स्वयम के अवदान, योगदान, प्रतिदान का.
और सुनो! जरा ध्यान देकर सुनो!!
समाज में जब जब...
चौखट, आँचल और पगड़ी की
त्रिक के मूल्यों में कमी आई है
या लायी गयी है बलपूर्वक और 
आँचल खीचकर नंगा किया गया गया
अथवा उछाली गयी किसी की पगड़ी
तब तब हुवा है संग्राम, घोरसंग्राम.
प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में
अब भी व्यवस्था है इस त्रिक की.
हां, आज यह त्रिक टूट रहा
आज न घरों में रहे चौखट,
न सर पर आँचल और पगड़ी.
नतीजा देख रही हो चारोंओर भ्रष्टाचार
कुत्सित व्यभिचार, घृणित दुराचार..


- डॉ. जयप्रकाश तिवारी भरसर, बलिया

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