Wednesday, June 24, 2015

सुनो सुनो मेरी अंतिम बात

स्मृति-सागर मे डूबते उतराते
आती है याद बहुत सी बातें
गति करना मानव स्वभाव है
घूमा करता नभ जल थल मे,
वह इससे भी आगे को जाता
चेतन मन व्ह, कहाँ न जाता?
मैं भी हूँ रहा प्रवाह नदी का
जाने किधर को जा रहा था
जलधारा तो बहती है नीचे
मैं ऊर्ध्व को जा रहा था ॥
सचमुच गिरा धँसा भी हूँ
धारा संग मैं कितना नीचे ,
सच से भी मुँह मोड़ना क्या
जो छोड़ दे उसे जोड़ना क्या?
पहुचा सागर तट जिसके साथ
छोड़ दिया उसने ही साथ
खुद तो हुई विलीन सागर मे
छोड़ गयी मुझे लहर के साथ ।
कब तक रहता साथ लहर के
लौटा वापस कराह कराह के,
लेकिन बीच धार मे हमने
अन्तः को भावों से सींचा
जो छूट गई थी भाव-वेदना
उन सबको मुट्ठी मे भींचा
जगी चेतना अन्तः की जब
तब नीचे को मैं क्यों बहता।
जग जाता है जब सोने वाला
प्रतिगामी वह दिशा बदलता
गंगा जाती गंगा सागर को
लेकिन मैं गोमुख जा पाहुचा ॥
  
आखिर इन अनुभूतियों को
कब तक रोके पास मे रखता
अनुभूति वही चाहती छलकना
इसलिए तुम्हें मैं आज पुकारता,
आओ बच्चों मैं तुम्हें सुनाऊँ
मन की बातें अब तुम्हें बताऊँ
तुम समझो, समझाओ यह बात
जो कुछ जाना वो गूढ सी बात।
इस सृष्टि की प्रथम रचना है जो
तुमको आज मैं सौपना चाहता।
खो न देना इसे, रहे इतना ध्यान
कह लो इसे वेद, निर्वेद या ज्ञान
ज्ञान विज्ञान का इति तो है ही
अथ से किया है आरम्भ जिसने
अर्थ से किया है प्रारम्भ जिसने
ताप से किया उसे दृढ़ है जिसने
त्याग से किया सुदृढ़ है जिसने  
सार तत्व जो भरा है इसमे
यह सारा जीवन खप जाएगा
पर हाथ बहुत थोड़ा आएगा ॥

कहता हूँ जो सुनो ध्यान से
सुनाता हूँ इसे बड़े अरमान से
बच्चे ही थे, जो समझ न पाये
तत्व सत्व को समझ न पाये
रह गए सिमट भौतिकता मे ही
वे आगे उसके, जा ही ना पाये
हुआ सीमित आचार भौतिकता मे
बीता जीवन सारा भौतिकता मे।
भौतिकता की इसी अधिकता ने
निकाला दिवाला नैतिकता की  
ऋषि – महर्षि फिर आगे आए
उपनिषद वेदान्त का पाठ पढ़ाये
ज्ञान – विज्ञान सब संग मे लाये
सभी ने सम्यक माप तौल कर
अपना अपना निष्कर्ष बताया
भौतिकता को ससीम बताकर  
अध्यात्म को नया राह दिखाया ।   
अध्यात्म का अर्थ, आत्म अध्ययन 
अध्यात्म का अर्थ, स्व को जानना
प्रकृति को जानना, प्रवृत्ति जानना
शिव को जानना, शक्ति को जानना
अणु को जानना, विभु को जानना
इसके परीक्षण – पुनर्परीक्षण मे ही
चिंतकों ने अपनी शक्ति गला दी,
हम रज्जु को सर्प मान बैठे हैं
इस गूढ रहस्य का भेदन करके
जटिल एक रहस्य  सुलझा दी।

ज्ञान तत्व जब शुष्क हुआ
तब भक्ति की धारा यहाँ बही
इस भक्ति धार मे बहते बहते
कुछ लोभी लमपट बन जाते हैं
कुछ बन जाते योगी - ध्यानी
कुछ कपटी कामी बन जाते हैं।
इतनी बात बता करके अब
आज तुम्हें मैं वेद सौप रहा
उपनिषद और वेदान्त सौपता
खुला गगन, इंद्र-धनुष सतरंगी
बादल और विद्युत तुझे सौपता
सोचो और समझो इसकी आवाज
सुनो इसके दर्द और करो इलाज,
तुम्हें पुराण, गुरु ग्रंथ सौपता
संगीत के सप्त स्वर’, राग
औ महेश्वर सूत्र मैं तुझे सौपता।
इसे मनन करोगे तब पाओगे
इसमे पूर्ण एक विज्ञान छिपा है
सीमित नहीं केवल अध्यात्म तक
सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान छिपा है ।

आज भी मानव पहुँच सका नहीं
जहाँ पूर्वज तेरे पहुँच चुके हैं   
तू व्यथित न होने पाओ दुख से
अस्तु मैत्रेय बुद्ध तुझे सौप रहा
विचलित न होने पाओ भय से
वीरों का वीर महावीर सौपता,
न उठे द्वंद्व पूरब पश्चिम की
महर्षि अरविंद मैं तुझे सौपता
मानव से भी आगे बढ़ सको
अतिमानस दर्शन तुझे सौपता॥

खूब पढ़ो पाइथागोरस, न्यूटन को
खूब पढ़ो आइन्सरीन, हाकिन्स को
कामायनी, ऊरवाशी को भी पढ्ना
धार्मिक ग्रन्थों के साथ साथ ही
इस अग्नि की उड़ान भी पढ्ना,
पोंगा पंडित बनने से श्रेष्ठतर
अच्छा एक इंसान है बनना।
भाऊक होना है अच्छी बात, पर
भावना तो बहती हुई दरिया है
भवन नहीं बन सकता इस पर
यह जीवन इस पर लूट सकता है।
छत की हो यदि चाह तुम्हें तो
बुद्धि विवेक की बात मानना
अंध विश्वासी कभी न होना
अन्तर्मन के पट को खोलना ॥

मन की बात मे रंग जाओ
साहित्य, नाटक तुझे सौपता
फैले मानवता सारे जग मे
इसमे ऐसी ऊर्वर बीज रोपना,
अपने सपने को आकार दे सको
इसलिए तुम्हें मैं समय सौपता
कटुता घिस-धिस चिकना करना
यह असली रंदा तुझे सौपता  
नूतन जग का सृजन कर सको
यह चाक आज मैं तुझे सौपता  
दीपक – गागर - कुंभ बनाना
अंदर हाथ दे थाप लगाना
धीमी आंच पर उसे पकाना
रंग - रोगन से खूब सजाना
देखो ! उसे कभी मत देना
जो पैसे का रोब-दाब दिखावे
कार मे बैठ कर तुझे बुलावे
उसके झांसे मे कभी न आना
प्राथमिकता देना मन के भाव को
सीखो पहचानना मन के भाव को
नैतिकता का हर क्षण परिचय देना
संवेदनाओं का हरदम परिचय देना ॥

रहस्यमयी होता मानव मन
यह स्नेह-प्रेम का दम भरता है
लेकिन स्नेह डोर के टूटते ही
निकृष्ट सा रूप यह धरता है
ज्यों टूटा दर्पण सौन्दर्यमयी
घातक हथियार सा बनता है
जो ऐसे रंग रूप बदलता हो
हिंसा से भरा जो रहता हो
न स्नेह, मुहब्बत, प्रेम है वह
वह मन की विकृत वासना है
ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, वासना
इनसे दूर है तुमको रहना
प्रेम तो है एक साधना निर्मल  
तू प्रेम मे निर्मल ही रहना ।
आँसू न बहाना किसी के लिए
नहीं मूल्य वह इसका समझेगा
यदि मूल्य समझ ले आँसू का
यह अश्रु क्यों बाहर छलकेगा?
जैसा यह जग सौप रहा हूँ
इससे सुंदर सुखद जगत एक
तुम अगली पीढ़ी को सौपना
अंतिम शिक्षा तुम मेरी ले लो
आज तो मैं प्रस्थान कर रहा
दृग बंद किए विश्राम कर रहा
आश्वस्त हो प्रस्थान कर रहा ॥ 
डॉ जयप्रकाश तिवारी

          
 
  
















Monday, June 22, 2015

'पिता' कोई शब्द मात्र नहीं, वह 'शब्दकोश 'है

'पिता' कोई शब्द मात्र नहीं, वह 'शब्दकोश 'है
'पिता' एक शब्द नहीं, संतति का जयघोष है
बाजुओं मे जिसके, रक्षण - संरक्षण ही नहीं
मुख मे प्यार - दुलार, डांट -फटकार ही नहीं
उसके पास तो दायित्वों से परिपूर्ण है आगोश
सचमुच पिता शब्द नहीं है, वह तो 'शब्द कोश' है ॥

इस एक शब्द मे भरा हुआ है दायित्वों का सागर
अपनी नन्ही सी अंजुरी मे, कैसे भरूँ मैं ये सागर?
घर के अंदर, घर के बाहर, खेलों के भी मैदान मे
कहाँ-कहाँ नहीं दृष्टि है रहती, एक अकेली जान मे
हड्डी पसली घिसी पिटी है, फिर भी कितना जोश है
सचमुच पिता शब्द नहीं है, वह तो 'शब्द कोश' है ॥

इस एक शब्द की गाथा मे, रच जाऊँ चाहे मोटा ग्रंथ
पूरा नहीं मैं लिख पाऊँगा, करूँ चाहे जितना प्रयत्न
प्रशिक्षक कहूँ, कुंभकार कहूँ, या कहूँ मैं धोबी-माली
प्रताड़ना भी अच्छी लगती, प्यारी सी लगती थी गाली
कितनी कुलांचे भरते थे, बनकर मतवाला -मतवाली
भाई बहन कुछ समझ न पाते, कछुवा कौन खरगोश है
सचमुच पिता कोई शब्द नहीं है, वह तो 'शब्दकोश' है ॥

पिता है तो साया है, बल है, संबल है, सभी सहारा है
पिता के बलबूते ही मन अबतक नहीं कभी भी हारा है
इस जीवन मे प्रगति पथ पर , बढ़ती है गति जिससे
शक्ति स्रोत कोई और नहीं, वह प्यारा पिता हमारा है
एक संस्कार जो दिया पिता ने, उसका अबतक होश है
इसीलिए दुहराता, पिता कोई शब्द नहीं, शब्द कोश है ॥

डॉ जयप्रकाश तिवारी

Saturday, June 20, 2015

भेद नहीं है उसकी दृष्टि में

क्षण क्षण में जो रमा हुआ है
अंक्षर अक्षर जो जुड़ा हुआ है
कण कण में जो खुदा हुआ है
सुनो प्यारे ! वही तो 'खुदा' है
जो रमा हुआ है रोम - रोम में ...
वही तो हमारा आराध्य राम है,
क्यों करते हो सीमित उसको
तुम मंदिर और मस्जिद तक।
उसी की तो यह समस्त सृष्टि है
संकुचित वह नहीं, हमारी दृष्टि है
अंतर क्या इससे पड़ता कोई
संज्ञा यदि उसकी बदलता कोई
यह तो अपनी - अपनी पसंद है
जड़ चेतन सब उसकी पसंद है
यदि नहीं पसंद होता यह उसको
रचता क्यों वह सृष्टि में उसको ?
भेद नहीं है उसकी दृष्टि में
भेद है सारा, अपनी ही दृष्टि में।
इस भेद को ही हमें मिटाना है
जगत को सौन्दर्यमयी बनाना है
'शिवत्व' जगत में लाना है
शुभत्व का भाव जगाना है।
अरे इसी निमित्त आये हैं हम सब
नव वर्ष में संकल्प यही उठाना है
हमें अपना दायित्व निभाना है
बनाया गया है मानव हमको
हमें मानव धर्म निभाना है। .


डॉ जयप्रकाश तिवारी

Sunday, November 16, 2014

कठघरे मे खड़ा हूँ मैं

कठघरे मे खड़ा हूँ मैं
मैंने पूछा- अरे न्यायविदों 
आरोप तो मुझे बता जा
आरोप लगा है मेरे ऊपर -
'टकेसेर भाजी, टकेसेर खाजा'
दृष्टि लौटाता हूँ..., तो पाता हूँ
कलयुगी इस माया नगरी मे
इस काया रूपी गगरी से
सचमुच, छलकी हैं बेहिसाब
'प्रेम की बुँदे', 'भक्ति के रस'
इन्हीं बूंदों को टपकाने का
सभी को प्यार का पाठ पढ़ने का
जनता को कर्मयोगी बनाने का
घोर-संगीन आरोप है मुझ पर,
हाँ, 'यह जुर्म स्वीकार है मुझे'
क्यों मुकदमा करोगे मुझ पर?
इस जुर्म की ही सजा है
यह बेचारगी, यह दीवानापन
यह बचकानापन, सयानापन
अब होश भी देखो, खो चुका हूँ
जब तुम लोग सो जाते हो
तभी मैं उठता हूँ यहाँ
तारों के संग बातें करता
उन्हीं के साथ ही खेलता हूँ
दीखता भेद नहीं, धूप-साये मे
मानता भेद नहीं अपने-पराए मे
इसी 'संमदर्शिता' का दोषी हूँ
विश्वसनीयता का आरोपी हूँ
कृतघ्नों की इस बस्ती मे
बस, कृतज्ञता का दोषी हूँ
'मरजीना' की चाहत मे
न जी पाया, न मर पाया
इसे पाने की चाहत मे ही
मर मिटने का, मैं दोषी हूँ॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी

Saturday, November 15, 2014

दृष्टि भेद

दुनिया में सबको
द्वेष तो दीखता है
नेह स्नेह अनुराग
कहाँ देखता है ?
रार दिखती है ...
तकरार दिखती है
फटकार दिखती है
स्वीकार दिखती है
लेकिन जो लड़ाई
मैं लड़ रहा हूँ
आप के लिए
अपने आप से
दूसरों को वह
दिखे या न दिखे
आप को भी
यह कहाँ दीखता है
कब देखा है आपने
रिस्ता हुआ शरीर
बहता हुआ लहू
फूटा हुआ माथा?
औरों की तरह
आपने भी तो
बना दिया है
मुझे एक तमाशा


- डॉ जयप्रकाश तिवारी


Thursday, September 18, 2014

कविता को तुम शोर न कहो

कविता को तुम शोर न कहो
कविता यह कोई शोर नहीं है
हाँ इसकी ध्वनि दूर टक पहुचती है
जब जीवन की लय, जूनून की धुन पर
तर्कों के संबल में अंगड़ाई लेती है
तब बच्छों बुड्ढों में भी तरुनाई जगती है
उनके मानस में तीव्र हलचल मचाती है.
फी भी यह न शोर है न उन्मादिनी है
काव्य स्वर है अन्तः का ज्वर है
काव्य स्वर उन्मादिनी नहीं मन्दाकिनी है
यदि इसे शोर या शेर कहा भी जाय
तो यह उठकर अब थमने वाला नहीं
उर्मियों की तरह दम तोडनेवाला नहीं.
कविता हैलोजन की चकाचौंध नहीं
जो जली तो जली बुझी तो बुझी
और शेष रह गया वही घुप्प अँधेरा
काव्य शब्द-ज्योति है जो भाव प्रकाश फैलाती
एक लौ से सहस्र लौ जलती है और
देखते देखते भावों का मशाल बन जाती है
मशालची का यही हलचल
जब शब्दों में ढल जाता है तब
एक नूतन काव्य का सृजन हो जाता है
हाँ यह  है कविता कुछ करती नहीं 
परन्तु सब कुछ कराती तो वही है .

डॉ जयप्रकाश तिवारी

Wednesday, February 19, 2014

समस्या मानव के शाश्वत प्रश्न की

सुख और शांति ही तो
शाश्वत मांग रही है मानव की
इसी के लिए रचता रहा है प्रपंच
करता रहा है उपयोग-दुरुपयोग
अपनी तीक्ष्णबुद्धि और चेतना का,
मानव मन झूलता ही तो रहा है
सदा से, सतअसत के बीच,
और दोलित होता रहेगा वह
पता नहीं कब तक  ... ,
इस सत और असत के बीच 
कभी अकेला निर्जन एकांत मे,
कभी संगठित किसी समाज मे
वह होता रहा है लगातार दो-चार
मन मस्तिष्क मे हिलोरें ले रही
जिज्ञासामय उत्कंठित तरंगों से।  

मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ?
क्या विश्व अंतिम सत्य है?
क्या समाजसेवा, लोकसेवा ही
अभ्युदय है? नि:श्रेयस है?
क्या लोकमंगल के लिए
जूझ मरना ही है उत्सर्ग?
और सर्वोच्च अंतिम आहुति?
अथवा
सम्पूर्ण जगत ही है निस्सार?
और वैराग्य है आत्मज्ञान का
प्रथम परिष्कृत सोपान?
क्या चित्त-वृत्ति निरोध ही है
सर्वोच्च साधन नि:श्रेयस का?
और अहं का विलोपन ही है
सच्चा उत्सर्ग? अंतिम आहुति?
जिसके लिए रहना चाहिए
सभी को सदैव तैयार?
और यह मोक्ष – कैवल्य - निर्वाण
संकल्पना है, भ्रमजाल है या सत्य?
इस पर गहन चिंतन मूढ़ता है
या मानव चेतना का विकास?
क्या कोई और स्थिति हो सकती है 
इसका समुचित स्वीकृत विकल्प?

        
         (ii)
इन प्रश्नों मे अंतर्निहित है
धर्म और विज्ञान का द्वंद्व,
प्रचलित हैं विभिन्न धर्मों-मतों के
संगत-असंगत, उचित-अनुचित दावे,
साथ ही कम नहीं है, कहीं से भी
लौकिक-समाज के समाजशास्त्रीय दावे।
विचारणीय विंदु यह है कि
धर्म का अस्तित्व मानव जीवन मे
आरोपित है या संस्कारगत?
यदि आरोपित है तो निश्चय ही
उलझा रहा है मानव अब तक
अंधविश्वासों के इस भ्रमजाल मे,
और आज मुक्त हो जाना ही
सर्वथा उचित है इस भ्रमजाल से।
किन्तु धर्म यदि है-
मानवीय संस्कार की उपज तो
स्वीकारना होगा उसका अस्तित्व,
उसका सार्वकालिक महत्व और
धार्मिक दावों का बना रहेगा
यूँ ही अपना अलग महत्व॥

चिंतन तो नित गतिशील है
कबीलाई जादू-टोने-टोटके से
बहुदेववाद, और बहुदेवाद से
एकेश्वरवाद की इस यात्रा मे है 
प्रगतिशील, गतिशील, उन्नतिशील।
अब प्रश्न है, यह एकेश्वरवाद
विज्ञान का जड़वाद है?
या धर्म का अध्यात्मवाद?
यह विज्ञान का न्यूट्रोन है या
अध्यात्म का अर्द्ध-नारीश्वर?

यदि धर्म मात्र पूजा-आराधना तक ही
सीमित, तो है यह भ्रमजाल और यदि
है इसका परिणाम अभ्युदय-नि:श्रेयस
तो है यह पूरक विज्ञान का,
यह मार्गदर्शक भी है विज्ञान का।
और अब तो धार्मिक शब्दावली का
खुला प्रयोग करने लगे हैं शीर्ष वैज्ञानिक भी।
आइंस्टीन कहते हैं – “गॉड प्लेज डाइस”,
तो स्टीफेन हकिंग कहते हैं –
“गॉड डज नॉट प्ले डाइस”॰
यदि इस बहस को छोड़ भी दें कि
किसका उत्तर है सत्य, किसका असत्य
परंतु प्रमाणित हुआ फिर भी यह तथ्य
ईश्वर है, वह लीला करता है, लीलाधर है
यही तो कहता आया है भरता सदियों से
बारंबार, अनेक रूपों मे, अनेक प्रकार से॥


            (iii)
आज भी कुछ लोग
ग्रसित है अपने ही विचारों से
वे कहते हैं, न करो साझा
किसी और को उसके साथ,
क्योकि पसंद नहीं उसको
किसी भी और का साथ,
तो क्या वह ईर्ष्यालु है?
इसपर वे कहते हैं-
वह परम कृपालु, दयालु है
उसके अंग-प्रत्यंग से
स्नेह का निर्झर झरता है
न्याय-झरना कलकल बहता है,
सोचता हूँ, तब वह
इतना तंगदिल कैसे हो सकता?
क्या उसके आसन पर, बगल मे
किसी के लिए भी स्थान नहीं?
क्या कोई गोद मे नहीं बैठ सकता?
उसके कंधे से झूल नहीं सकता?
उसके सिर को सहला नहीं सकता?
इतना भी धैर्यवान, सहनशील,
और स्नेहमयी यदि नहीं है वह,
तो फिर एक पिता वह कैसे?
और जो पिता नहीं बन सकता
वह जगतपिता हो सकता कैसे?
जगन्माता, जगन्नियंता कैसे?
यदि है वह शक्तिमान तो
शक्ति कैसे हो सकती बाधा?
वे तो बताते भी नहीं कि
वह पुरुष है या नारी?
लिंगी है या अलिंगी?
कुमार है या कुमारी?

वे कहते हैं – तू चुप रह!
तू नास्तिक है, मूर्ख है, वाचाल है
तू काफिर है, फिरंगी है, बहुरंगी है।
पूछता हूँ –
वह है जब एक अकेला,
वही जब सर्जक सारे जग का
तो रचकर जगत, परे इसके
रह सकता बहुत दूर वह कैसे?
अपने ही बच्चों से अलगाव
सहन कर सकता वह कैसे?
वे कहते हैं-
वह है असीम, अनिश्चित,
एक अनिवार्य सृजन सत्ता,
कहते नहीं थकते विलक्षण उसको
कृपाशील, दयावान भी उसको,
उसी का फिर लक्षण बतलाते
उस दयावान का भय दिखलाते।

जब पूछता हूँ-
वह आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ?
अथवा परे है निरा इन भेदों से?
वह सर्वदेशीय है या एक देशीय?
वह विराज है, सूक्ष्म है या महान
या है अणुरोअणियम महतो महीयान?  
जब वह है अज्ञेय और अव्याख्येय
समझ के परे, तो कैसे जान गए आप
उसके अन्तर्मन की गूढ-गोपनीय बात?
वे नाराज हो जाते, हाथ मे डांडा उठाते॥
  

        (iv)
मैंने अबतक यह समझा
संप्रदाय हैं अनेक, धर्म है एक
संप्रदाय पंथ काया हैं, धर्म के
आत्मा नहीं बन सकते वे धर्म के,
धर्म है अस्तित्व, धर्म ही सत्ता
जिसकी अनुपस्थिति से मिट जाए
अस्तित्व, बदल जाए संज्ञा
वही है धर्म, यही उसकी महत्ता,
शब्द और अज्ञान मिलकर
सृजित करते संप्रदाय की सत्ता,
सत्य है एक, परम तत्व एक
लेकिन व्याख्या वाले शब्द अनेक,
भाषा, शैली, और विधि अनेक
व्यक्ति अनेक, ग्रंथ अनेक, पंथ अनेक।
इसी अनेकत्व ने किया है विकसित संप्रदाय
सभी भटक रहे, समझने का अब क्या उपाय?
जो विलक्षण है, उसका लक्षण कैसा?
फिर भी वे शब्दों का भ्रमजाल फैलाते,
सत्य तो होता भी नहीं अभिव्यक्त
शब्दों द्वारा, फिर भी वे समझते हैं
हमे अपने शब्दों के द्वारा ।  
कहता हूँ- ऊपर उठो!
विचारों से, तर्क से, शब्दों से
तब जान पाओगे निर्विचार को
निर्विकार को, शब्दातीत को,
शब्द तो हैं संकेतक मात्र
हम तो शब्द का अर्थ करते हैं
उसमे भी मनमानी करते हैं।
शब्दों की अपनी सीमित शक्ति,
अभिधा-लक्षणा-व्यंजना तक जाती
आगे उसके रुक यह जाती,
अब संकेत-प्रतीक आगे गति करते हैं
थोड़ी और आगे तक दूरी तय करते हैं।

लेकिन
शब्दों-प्रतीकों के प्रति आग्रह ही
पूरी की पूरी बात ही बदल देता
पूरा संदर्भ अब पीछे छूट जाता
और अब उन शब्दों, प्रतीकों की ही
अपनी-अपनी मीमांसा प्रारम्भ हो जाती।
सत्य छिप जाता पीछे और हम
उलझ जाते है शब्दों मे, प्रतीकों मे,
आधुनिक भाषा विश्लेषणवादी
आज क्या कर रहे हैं?
शब्दों मे ही तो उलझ रहें हैं
परिणामतः शब्दजाल फैल रहा है
कलह, द्वेष, नफरत फैल रहा है।

तो क्या सत्य सर्वथा अज्ञेय है?
नहीं, सत्य अज्ञेय तो नहीं,
लेकिन अव्याख्येय अवश्य है,
ज्ञेय है यह, मात्र सत्यानुभूति से
साक्षात्कार से, स्व के बोध से,
सत्य साक्षात्कार के लिए हमे
पंथ और संप्रदाय छोडना होगा।
शस्त्र वचन त्रुटिपूर्ण नहीं हैं
त्रुटिपूर्ण है हमारा ही अर्थ
हमारा निहितार्थ, हमारी व्याख्या,
क्योकि शस्त्र वचन हमारे द्वारा
न दृश्य हैं, न श्रव्य, वे परंपरागत हैं,
अर्थ और निहितार्थ परंपरागत हैं
सत्य प्राप्ति के लिए करना होगा तप
करो चाहे यज्ञशाला मे या प्रगोगशाला मे,
लेकिन इसके लिए तैयार नहीं हम
हमे चाहिए पकापकाया भोजन
रसोइया बनने को तैयार नहीं हम ॥ 

-    डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी