मुझे इस बात को स्वीकार करने में थोड़ी भी हिचक नहीं है कि इस अध्यात्म में छिपी हुई विज्ञान कहानी को ढूढने की प्रेरणाको एक अतिरिक्त ऊर्जा और बल श्री अरविन्द के इस अन्वेषी विचार से मिला - "हमारे लिए कविता बुद्धि तथा भावना का विलास मात्र है, कल्पना एक खिलौना तथा आमोद-प्रमोद की वस्तु, हमारा मन बहलाने वाली नर्तकी है. परन्तु प्राचीन लोगों के लिए कवि द्रष्टा होता था, अन्तर्निहित गूढ़ तथ्यों का उदघाटन करने वाला ऋषि, और कल्पना राजदरबार में नाचनेवाली नर्तकी न होकर भगवान के मंदिर की पुजारिन होती थी. दुरूह तथा छिप्र हुए सत्यों को मूर्तिमान करना उसका निर्दिष्ट कार्य था; मगढ़ंत तानाबाना बुनना नहीं. वैदिक शैली में रूपक या उपमा भी गंभीर अर्थों में प्रयोग किया गया है और उससे विचारों के लिए आकर्षक अलंकारों के सुझाव देने की नहीं, अपितु किसी वास्तविकता को भलीभांति दर्शाने की ही आशा की जाती थी." (मानव चक्र पृष्ट - ५)
अध्यात्म और साहित्य के क्षेत्र में 'वशिष्ठ' और 'विश्वामित्र' दोनो ही बहुचर्चित और बहुआयामी व्यक्त्तित्ववाले ऐतिहाहिक और पौराणिक नाम है. इनके आपसी संबंधों और संदर्भो पर अनेक छोटी- बड़ी कहानियाँ ग्रंथों, साहित्य और लोक-कथाओं में गद्य और काव्य दोनों विधाओं में व्यापक रूप से मिलती हैं. इन कथाओं में एक प्रमुख कथा विश्वामित्र द्वारा वशिष्ठ के पुत्रों का वध करके उनकी प्रिय गाय नंदिनी (कामधेनु) को बलात छिन लेने का प्रसंग सर्वाधिक प्रसिद्द है. आध्यात्मिक प्रवचनों में व्यासपीठ से इसकी तरह-तरह की विवेचना आचार्यों द्वारा की जाती रही है.परन्तु जब हम तर्क और ज्ञान के आलोक में लीक हटकर गहराई में सोचते हैं तो हमें इस कथानक में एक वैज्ञानिक कहानी, उसके सूत्र, उसकी विधियों /सिद्धांतों का प्रस्फुटन स्पष्ट रूप से होने लगता है.
संदर्भि कथा संक्षिप्त रूप में इस प्रकार है- जब विश्वामित्र ने वशिष्ठ के सौ पुत्रों का वध करके उनकी प्रिय गौ का अपहरण कर लिया तो पुत्र शोक में वशिष्ठ ने आत्म हत्या करनी चाही. उन्होंने कई बार प्रयास किया परन्तु मरे नहीं. परेशान होकर अंतिम बार अपने को पाश (रस्सी) में बाँध कर उरिंजिरा नदी में प्रविष्ट को गए. परन्तु वहाँ भी उसे मृत्यु नसीब नहीं हुई, मरे नहीं. अंतिम बार संकल्प बद्ध होकर अपने को बंधन में जकदकर नदी में प्रविष्ट हो गए. परन्तु आशा के विपरीत वे उस पाश और बंधन से मुक्त होकर'विपाश' हो गए. जनश्रुति है कि तभी से इस नदी का नाम विपाशा पड़ गया. पंचम वेद कहे जानेवाले महाभारत के आदिपर्व में यह कहानी इस प्रकार वर्णित है -
वसिष्ठो घातितान श्रुत्वा विश्वामित्रेण तान सुतान /
धारयामासं तं शोकं महाद्रिरिव मेदितिम // (१७३.४३)
चक्रे चात्म विनाशाय बुद्धिं स मुनिसत्तम /
न त्वेव कौशिकोच्छेदम मेने मतिमतां वाराह // (१७३.४४)
स मेरु कूटादात्मानाम मुमोच भगवा न्रिषिः /
गिरेस्तस्य शिलायम तु तुलाराषा विवापतत // (१७३.४५)
स समुद्रम अभिप्रेक्ष्य शोकाविष्टो महामुनिः /
बध्वा कंठे शिलाम गुर्वी निपपात तदाम्भसि // (१७३.४८)
...........
इस कहानी में बशिष्ठ, विश्वामित्र, गौ तथा वशिष्ठपुत्र मुख्य पात्र हैं. यदि प्रयुक्त संज्ञावाचक शब्दों के एक से अधिक अर्थ हो तो निश्चित रूप से कहानी का स्वरुप और निहितार्थ भी बदल जायेगा. सुविधा के लिए हम इन शब्दों के प्रचलित अर्थ से भिन्न अन्य अर्थों को ढूढ़ते हैं -
वशिष्ठ:
(i) निरुक्त के अनुसार वशिष्ठ का अर्थ है, जल (आपः) के संघात से आच्छादित रहने वाला - "वशिष्ठो अप्याच्छादित उदतसंघात वसुमतम ". (५.१४)
(ii) शतपथ ब्राह्ममण के अनुसार जो अन्धकार में व्यापक रूप से निवास करता है, वह है वशिष्ठ. - "तद वस्त्रीतमो वसति तेनो वशिष्ठ". (८.१.१.६.)
विशिष्ठ पुत्र:
उपरोक्त सन्दर्भ में वशिष्ट पुत्र जल के पुत्र छोटे अंश, जल बिंदु के अर्थ में लेना समीचीन और यथोचित होगा.
विश्वामित्र:
सर्वप्रकाशक, ऊर्जा का अजस्रस्रोत होने के कारण आदित्य सूर्य ही विश्व का असली मित्र होने के कारण विश्वामित्र है. 'विष्णु सहस्रनाम' में आदित्य को विश्वामित्र कह कर सम्बोघित किया गया है.
गौ:
गौ शब्द के विभिन्न अर्थ हैं, इसका एक अर्थ पृथ्वी भी है. निघत्तु (१.१) में इसे "गौ पृथ्वीनाम " कहकर इसे स्पष्ट भी किया गया है.
अब इन बदले हुए अर्थों और सन्दर्भों में यह कहानी इस प्रकार कही जा सकती है. सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था, रात्रि जैसे गहन अंधकार में जलमग्न / जलबूंदों से आच्छादित पृथ्वी को, सूर्य ने प्रभात होते ही इन जलबूंदों को विनष्ट कर डाला और पृथ्वी को मुक्त करा लिया. इसे ही अपहृत करना कहा गया है.
विभिन्न ऋतुओं और मौसम के बदलते क्रम में यह पृथ्वी जीवन तथा धन धान्य से परिपूर्ण कामधेनु बन गयी. वहीँ वाष्प जलांश बादल बन कर पर्वतों की चोटियों पर गिरते बरसते नदी-सरिताओं के माध्यम से पुनः समुद्र तक पहुच गया. सब कुछ हुआ परन्तु वह मरा नहीं. अब वह वशिष्ठ मेघ के बन्धनों में बंध कर फिर प्रविष्ट हुआ, वर्षा रूप से यह वशिष्ठ विपाश हो गया, बंधन मुक्त होगया. और लगातार अस्तित्वमान बना रहा और आज भी अस्तित्वमान है.
इस कहानी को अध्यात्म और विज्ञान दोनों गाते हैं. अब क्या आप बतलायेंगे विज्ञान ने इस कहानी का नाम क्या दिया है? हाँ, बिल्कुल ठीक पहचाना आपने - 'जल चक्र' या 'Water cycle'.
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