प्रज्ञान - विज्ञानं परिचर्चा
अंक-1
आचार्य जी - बेटे! तुम शंकालु एवं हठी प्रवृत्ति के बन गए हो. काश ! तुम्हारी माँ होती तो शायद इतना न भटकते. रामू से रोमिओ नहीं बनते.
डॉ. रामू - क्यों? क्या पिता पालन-पोषण नहीं करता? (रामू ने प्रतिप्रश्न किया.)
आचार्य जी - करता है बेटे! सत्य है, परन्तु प्रवृत्तियों की प्रदाता तो माँ ही है.
डॉ. रामू - देखए आचार्य जी! मै वैज्ञानिक हूँ. विदेश में रहकर रिसर्च किया है. नासा में चयन हुआ है मेरा. कोई भोला-भला ग्रामीण युवक नहीं, जिसे बेवकूफ बनाया जा सके. Have you any logic, any principle behind it? (कुछ उत्तेजित होते हुए रामू कुर्सी से उठ खड़ा हुआ).
आचार्य जी - बेटे! मैंने तुन्हारे प्रश्नों के उत्तर देने का वचन दे रखा है, उससे पीछे नहीं हटूंगा. हां तुमसे यह अपेक्षा अवश्य है की धैर्य रखो. उत्तेजित न हो. तार्किक अनुभूति और सैद्धांतिक प्रेक्षण ही आध्यात्मिक श्रद्धा और विश्वास का आधार है. तर्क और सिद्धांत रहित ज्ञान ढकोसला और प्रपंच तो हो सकता है, अध्यात्म नहीं. (स्वर में दृढ़ता थी).
डॉ. रामू - आचार्य जी! बातें तो बड़ी-बड़ी कर रहें है.परन्तु पाखण्ड को बढ़ावा भी तो आप लोड ही दे रहें है.
आचार्य जी - बेटे! तर्कशील बनते हो तो दुराग्रही न बनो. शिष्य भाव में नहीं सुन सकते, श्रोता भाव में तो सुन सकते हो. वैसे भी प्रतिपक्षी को धैर्य पूर्वक और सकर्कता पूर्वक सुनना चाहिए. इससे स्वस्थ शास्त्रार्थ का मार्ग प्रशस्त होता है. वार्ता आनंद दायक हो जाती है और अनावश्यक विवाद को स्थान नहीं मिलता.
दादा जी - Ramu be serious and listen ! (इस बार कद्क्दार स्वर दादा जी का था).
डॉ. रामू - O.K. sorry ! I am ready to listen Dada ji !.
आचार्य जी - इतना तो जानते ही हो कि कश्यप ऋषि की दो पत्नियां थी - 'दिति' और 'अदिति'. दोनों माताओं ने बच्चों का पालन-पोषण किया. अदिति के बच्छों को देव और दिति के बच्चों को दानव कहा गाया, क्यों? सोचो! ठीक इसी प्रकार राजा उत्तानपाद कि दो रानियाँ थी - 'सुरुचि' और 'सुनीति'. सुरुचि से उत्तम ( या उत्ततम) और सुनीति से ध्रुव जैसा बालक इस जगत में आया. बेटे! यह कहानी नहीं सिद्धांत है. इसमें ज्ञान - विज्ञान - मनोविज्ञान और नीतिविज्ञान के सिद्धांत एक साथ गुम्फित हैं. बेटे! चलो पहले हम तुम्हारे विज्ञान को ही लेते है - यह रासायनिक अनुबंध (Chemical Binding) का सिद्धांत है. यह नाम - रूपमय दृश्य जगत अणुओं का संघात है और स्वयं अणु भी परमाणु का, और परमाणु भी तो electron, proton और neutron का. कहने कि आवश्यकता नहीं कि proton और neutron केन्द्रक में होते हैं और एलेक्त्रों अपनी कक्षाओं में चक्कर लगाते हैं तथा अपनी संयोजकता के अनुसार दूसरे परमाणु से बाइंडिंग बनाते है. यदि परमाणु प्रदाता क़ी भूमिका निभाते हुए दूसरे परमाणुओं से संयोग कर कोई बाइंडिंग बनाता है तो पहला परमाणु धनात्मक चार्ज हो जाता है, अर्थात दाता प्रवृत्ति का, समाज के सर्जनात्मक व्यक्त्तित्व और प्रवृत्ति वाला, सात्विक और त्यागी वृत्ति वाला होता है परन्तु दूसरा ग्राही स्वभाव वाला परमाणु, रिनात्मक चार्ज ग्रहण करता है और ध्वन्शात्मक वृत्ति वाला, नकारात्मक मनोभावों वाला हो जाता है.
इसी प्रकार '४' की संयोजकतावाला शांत स्वभाव का होता है. संगती प्रभाव से इसे धनात्मक अथवा ऋणात्मक प्रवृत्ति का बनाया जा सकता है. स्थान - स्थान पर चल रहे सत्संग और आध्यात्मिक प्रवचन इन्हीं परमाणुओं को सन्मार्गी बनाने के लिए हैं. और बेटे! यही कार्य तो तुम्हारा विज्ञान भी कर रहा है. जिसे हमने सत्संग कहा है, विज्ञान इसे 'doping' कहता है तथा Si और Ge जैसे शांत प्रवृत्ति वाले को 'Semi Conductor' में परिवर्तित कर कैसी हलचल पैदा कर दी है? क्या इसमें और कुछ स्पष्ट करने की आवश्यकता है? सिलिकन चिप से लेकर माइक्रो प्रोसेसर जैसे सर्जनात्मक डिवाइस का निर्माण कर दिया है. इस कम्पुत्रोनिक्स जगत में सृजनात्मक ऊर्जा का स्रोत यह doping (सत्संग) ही है. परन्तु इन समस्त घटनाओं के पीछे जिम्मेदार होता है - 'electron'. वही तो उछल-कूद मचाता है. सिधी सि बात है जिसकी क्रियाशीलता, उसी को श्रेय. जिसे विज्ञान 'electron' कहता है वही तो अध्यात्म में मात्रि पक्ष है. बेचारे पिता 'प्रोटोन' की इसमें कितनी भूमिका है, क्या यह भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है?
डॉ. रामू - अरे वाह आचार्य जी ! वाह! . ऐसा तो हमने कभी सोचा ही नहीं था. यह क्या है - अध्यात्म, कहानी या विज्ञान?
आचार्य जी - बेटे! अभी तो यह प्रारंभिक विन्दु है. मेरा कार्य तुम्हारे प्रश्नों का समाधान करना है. जब हमलोग परिचर्चा करने बैठ ही गए हैं तो प्रयास करूंगा की तुम्हारी शंकाओं का समाधान और भ्रांतियों का उचित निवारण कर सकूं.
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