Monday, March 5, 2012

प्रज्ञान - विज्ञान परिचर्चा अंक - ३



डॉ. रामू - Excuse me sir, well remember, Stephen hawking has written a very popular book  entitled 'Brief History of Time', what a wonderful book. Sir! have you read it? मतलब सर, क्या अपने इसे पढ़ा है?

आचार्य जी - बेटे!  हम तो संस्कृति के पुजारी हैं. औचित्य का प्रश्न, लोकमंगल का प्रश्न हमारे लिए मूल प्रश्न है जिसके अंतर्गत समस्त विन्दुओं का, समस्त समस्याओं का समावेश होता है.हमारी संस्कृति सार ग्राही है. हमारे लिए वह प्रत्येक सार्थक विचार और वस्तु ग्राह्य है जो सत्य का प्रतिनिधित्व कर अंधकार से प्रकाश का मार्ग इंगित करती है. मध् संचय की प्रवृत्ति है हमारी.इसे ही लोक भाषा में संत कबीर ने कहा है - "सार सार को गहि रहे थोथा देय उडाय" . थोथा का अस्वीकार किसी वस्तु या विचार का तिरस्कार नहीं, उस विचार का तर्क सिद्धांत और लोकमंगल की कसौटी पर खरा न उतरना है. सुतार्कों से विवाद नहीं आनंद की प्राप्ति होती है, ज्ञान में वृद्धि होती है, नए दृष्टिकोण मिलते हैं जहां कुछ खोना नहीं, कुछ न कुछ पाना है. यहाँ कटुता नहीं स्नेह और श्रद्धा का विस्तार होता है. स्टीफेन हाकिंग के प्रति भी मेरे मन में स्नेह है और स्नेहिल को  ठुकराया नहीं जाता. बेटे! गाँठ बांध लो, जिस गोष्ठी में, जिस सेमिनार में विवाद और कटुता है, समझ लो कहीं न कहीं कुतर्क है, कहीं न कही संकीर्णता है, मताग्रह और दुराग्रह है. सत्य स्वीकारोक्ति का साहस नहीं.
      हाकिंग ने समय की जो चर्चा की है, पढ़ा है उसे. स्तुत्य प्रयास है उनका., परन्तु समय क्या है उसे परिभाषित नहीं कर पाए हैं. उन्होंने समय की गणना की है बेटे! बिगबैंग की घटना से लेकर अब तक के काल चक्र का. लेकिन बेटे! समय घडी की माप नहीं है. समय का अस्तित्व तब भी था जब घडी बंद थी अथवा घडी नामक वस्तु बनी ही नहीं थी. घड़ी की कौन कहे, घड़ीसाज भी तब कहाँ था? और लाख टके की बात जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब क्या समय अस्तित्वमान नहीं था? तो फिर वही प्रश्न समय क्या है? जो जड़ -चेतन, नाम रूपमय  सृष्टि का मापन करे, क्या वह समय है? वह तो काल खण्ड है. समय (काल) का मापक कौन है? विज्ञान और गणित के दो शब्द 'शून्य' और 'अनंत', सृष्टि और प्रलय जिसकी गोद में क्रीडारत हैं, उस समय का माप, उस समय की वैल्यू क्या है? क्या गणित अथवा विज्ञान इसकी गणना करने में समर्थ है? न्यूटन, आइस्तीं और हाकिंग ने जो सोचा ठीक सोचा, तुमने क्या सोचा है बेटे! ....
            तुम रोमिओ बनकर इसका उत्तर नहीं पा सकते, परन्तु रामू बनकर इसका उत्तर ढूंढ सकते हो. जानते हो क्यों? रोमिओ काल खण्ड से आगे तुम्हे जाने नहीं देगा. विज्ञान और गणित में ही तुम्हे उलझाये रहेगा. परन्तु तुम्हारे अन्दर का रामू तुम्हे काल खण्ड से बाहर निकालकर पूर्ण समय (महाकाल) "Supreme Time" तक पहुचा देगा. महाकाल के लिए वैज्ञानिक हों या गणितज्ञ उसे दर्शन के खेत्र में जाना ही पड़ेगा. आइन्स्टीन ने विज्ञान की परिधि से बाहर जाकर दार्शनिक खेत्र में पुनर्प्रवेश किया था. गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से हुई वार्ता में उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकार करते हुए स्पष्ट शब्दोमे कहा था - "...Then I an more religious than you are!". विज्ञान जगत ने इस पुनर्प्रवेश को खुले मन से स्वीकार नहीं किया. यह दूसरी बात है कि आइन्स्टीन कि तेजस्विता, प्रखरता, दृढ़ता, और मेधा के तीव्र प्रकाश में विरोध का यह स्वर उग्र नहीं हो पाया. परन्तु आलोचना जमकर हुई. उनके इस रुझान को पागलपन तक कहा गाया. बेटे और जो ज्ञान में डूबा नहीं दीवाना औए पागल हुआ नहीं, उसे क्या खाक नसीब हुआ? जरा देखो भारतीय संस्कृति क्या कहती है? सुनिए गुरु नानकदेव जी के शब्दों में - "खल मेरा भांग खलड़ी मेरा चितु मै दीवाना भया अतीतु"अब हम वापस लौटते हैं बेटे मूल प्रश्न पर कि समय क्या है?
समय क्या है?
काल का प्रवाह या
जिन्दगी का प्रश्नपत्र?
जिसमे करना पड़ता है
समाधान द्वंद्वों का.

जहाँ होता है: मंथन,
अनेकशः किन्तु - परन्तु,
तर्कों - कुतर्कों पर.
यहाँ परीक्षक और पर्क्षार्थी तो
व्यक्ति स्वयं है, परन्तु,
प्रश्नपत्र? क्या वह भी 
उसी की गतिविधियों का 
प्रतिफल नहीं है....?

समय तो
काल खण्ड के रूप में
प्रदान करता है,
मात्र एक अवसर.
मंथन एवं समाधान का.


सुविधा के लिए
जिसे हमने बाँट दिया है
टुकड़ों में.
भूत की पश्चाताप,
वर्तमान की निराशा और
भविष्यत की परिकल्पना,
निरा स्वप्न, एक आशा में.

जिसे हम भूत कहते है,
वह क्या है?
एक दर्पण - जिसमे,
भोगे गए क्षणों को,
अपने ही धब्बों को,
देखा जा सकता है.

और वर्तमान?
उन धब्बों को मिटाने का,
एक अवसर.
क्रियान्वयन की योजना,
शान्ति की आशा.

भूत की सीढ़ी दोना
शायद उचित नहीं,
परन्तु भूत का तिरस्कार,
क्या उचित होगा?
भूत के अवसाद - विषद में ही,
क्या गुम्फित नहीं है,
भविष्य का सुखद परिष्कार?

भविष्यत क्या है?
औचित्य के प्रश्न का
सम्यक समाधान.
एक स्वप्न, एक आशा,
एक संबल, एक प्रत्याशा.
जिसे पुनह बाँट लिया है
मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण;
और फ़ना, बका जैसे
गूढ़ गंभीर परिकल्पना में.

समय तो द्रष्टा है;
भूत, वर्तमान और 
भविष्यत् मात्र दृश्य.
समय है अनादि, असीम.
यह तो महाकाल है
जिसकी गोद में - 
शून्य और अनंत 
समाहित हैं एक साथ.

बेटे! तुम्ही दादाजी कि प्रत्याशा हो, एक मात्र भविष्य की आशा हो. तुम अपने दादा जी से उलझ रहे थे न की नाम में क्या रखा है? रामू कहो या रोमिओ क्या फर्क पड़ता है? अंतर चिंतन और संस्कृति का है बेटा!  तुम्हारे अन्दर का रोमिओ अपूर्ण है. रामू की गति पूर्णता तक है. दादा जी तुम्हे अपूर्ण नहीं देखना चाहते. यह उनका स्नेह उनका वात्सल्य, उनका लगाव है बेटे! वे तुम्हे पूर्ण देखना चाहते हैं अपूर्ण नहीं. (रामू भाव विभोर होकर दादा जी के पैर पकड़ लेता है..)

दादा जी - उठो वत्स! तुम्हारी जगह मेरे पैरों में नहीं दिल में है. बेटे! तुम्ही मेरी आशा, विश्वास सब कुछ हो. हां बेटे! यही मेरी भावनाएं थी, यही मेरी चाहत थी, मै आहत भी था. बार-बार कुछ कहना भी चाहता था परन्तु मेरे पास शब्द नहीं थे, तुम्हे समझा नहीं पा रहा था. 
(अब दादा जी हाथ जोड़ कर आचर्य जी का अभिवादन करते हैं....मुह से शब्द तो नहीं निकलते हैं लेकिन उनके विह्वल नेत्र बहुत कुछ कह देतें हैं..) 

आचार्य जी - दादा जी, भावक मत बनिए!  मुझे आपके पोते और वैज्ञानिकों की वृत्ति का पता है. ये सत्यान्वेषी होते हैं, आग्रही -दुराग्रही नहीं.  आपका पोता महान वैज्ञानिक बनेगा, इसमें किंचत भी संदेह नहीं.

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