नाद ही वर्ण है, स्वर है संगीत है,
और इस 'स्वर की देवी' की पूजा में
जब जा मिलती है साधक की भक्ति
साधना- उपासना - वंदना की शक्ति,
तो अनुभूतिया अपना रंग दिखलाती,
जब उमड़-घुमड़ आपस में मिलते हैं,
तब बन जाती, देवी वह - 'क़ाली'.
और इस 'स्वर की देवी' की पूजा में
जब जा मिलती है साधक की भक्ति
साधना- उपासना - वंदना की शक्ति,
तो अनुभूतिया अपना रंग दिखलाती,
जब उमड़-घुमड़ आपस में मिलते हैं,
तब बन जाती, देवी वह - 'क़ाली'.
काली, मंगला काली है, भद्र काली है
लेकिन है यह भयावह कपालिनी भी...
गहन गूढ़ अव्याख्येय अनिर्वचनीय भी.
निगल जाती है, जो जीवन और मृत्यु को.
गटक जाती है सारे सृजन - विसर्जन को.
अब वहाँ संगीत नहीं, स्वर नहीं, नाद नहीं.
ख़ुशी नहीं, गम नहीं, आह्लाद - विषाद नहीं.
भेद नहीं, अभेद नहीं, सबकुछ गुप्त अप्रकट.
अव्यक्त, निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निरंकार.
बौद्धिक विज्ञान जगत में अभी भी अज्ञात
यह ‘गहनगूढ़ कालिमा,’ यह 'डार्क एनर्जी'.
'डार्क-मैटर', कालिमा की चेतना-संचेतना.
हम खोज ही पाए हैं अभी तक कितना?
मात्र छ: प्रतिशत, इस गूढ़ रहस्य का.
चौरानबे प्रतिशत तो अभी भी अनजान.
कौन करेगा आगे, अब इसकी पहचान?
नवरात्रि पर्व खोज है- इसी रहस्य की.
शैल-चट्टानों में ढूँढा हमने अग्निशक्ति.
इसी शक्ति को शैलपुत्री नाम दिया था,
अलग विशिष्ट पहचान दिया था.
और जो सिद्धांत गुम्फित है इसमें
है नाम उसी का – “ब्रह्म चारिणी”.
स्वर - संगीत को जाना हमने
इस 'चन्द्र घंटा' के गहन सूत्र से,
शब्द –अर्थ –निहितार्थ -संकेतार्थ.
इस शब्द औ अर्थ के मंथन से-
निकला जो कुछ, वह गीत हुआ,
इस 'चन्द्र घंटा' के गहन सूत्र से,
शब्द –अर्थ –निहितार्थ -संकेतार्थ.
इस शब्द औ अर्थ के मंथन से-
निकला जो कुछ, वह गीत हुआ,
संगीत हुआ, नवनीत हुआ...,
आगे चलकर मनमीत हुआ.
जब मीत हुआ तो भीत मिटा,
जब बदली दृष्टि, चिंतन बदला.
इस शब्द अर्थ के मंथन से ही,
चिंतन - संवेदना के कम्पन से
जो थी क़ाली, अब वह गोरी हुई.
हुई गौर वर्ण, वह - 'गौरी' हुई.
वह 'दुर्गा' हुई.., 'नव दुर्गा' ..हुई.
जब मीत हुआ तो भीत मिटा,
जब बदली दृष्टि, चिंतन बदला.
इस शब्द अर्थ के मंथन से ही,
चिंतन - संवेदना के कम्पन से
जो थी क़ाली, अब वह गोरी हुई.
हुई गौर वर्ण, वह - 'गौरी' हुई.
वह 'दुर्गा' हुई.., 'नव दुर्गा' ..हुई.
अभी और भी मंथन करना है...
इस क़ाली को और गोरी को.
कर्पूर गौरं कैलाशपति को
सुता हिमाचल पार्वती उमा को.
दम्भ से जाना जा नहीं सकता
हेमवती उमा को, हिमाचलसुता को,
दम्भी अग्निदेव जिस यक्ष का
त्रिण छोटा सा, जला न सके थे.
और अभिमानी-बलशाली पवनदेव
त्रिण को तनिक हिला न सके थे.
अनुभवी देवराज-इन्द्र भी विस्मित
भौचक थे वे, दी पौरुष ने धोखा.
गहन शोध पर देवेन्द्र ने जाना था,
कि रहस्यमयी वह यक्ष कौन था ?
यह यक्ष स्वरुप कुछ और नहीं था...
वहाँ तो देवी हेमवती पार्वती उमा थी .
यक्ष था 'उमा सिद्धांत' का ही उत्पाद.
उमा सर्वस्वरुपा, सर्वशक्ति समन्विता है.
अग्नि में जो शक्ति निहित, उमा की है.
पवन में जो शक्ति निहित, उमा की है.
इन्द्र में जो शक्ति निहित, उमा की है.
वही उमा शैलपुत्री है, ब्रह्मचारिणी है
उमा ही काल रात्रि रूप में क़ाली है.
अजीब वेश, विखरे हुए हैं उनके केश,
कुछ सोचो भाई! इसको भी सोचो !!
इस विग्रह का है क्यों ऐसा वेश ?
वेला है यह परिष्कार की, परिवर्तन की.
संशोधन, परिवर्तन और परिवर्द्धन की...
आत्म मंथन की इस प्रक्रिया में
टूट फूट भी इसमें होते हैं बहुत..
इधर से उधर, कुछ उधर से इधर..
बहुत कुछ, जाता है यहाँ विखर .
केशों का विख्ररना ही हलचल है..
'ऋत' और 'सत' के कृत कार्य का.
सृजन की इस बेला में देखो !
जाता है बहुत कुछ, बहुत बदल.
अति वृष्टि हो, या हो अनावृष्टि
भू स्खलन, भूकंप हो या तूफ़ान.
यह अंतर्मन की ही हलचल है
क्या कभी उठा, तुम्हारे मन के
अंतर में भी, कभी ऐसा तूफ़ान?
कोलाहल जब थम जाता है
एक रूप निखरता नया नया.
जब कषाय कल्मष गए बाहर
तब प्रकटी ज्योति एक नया.
नाम रूप है यह कल्याणकारी
जगपाले वह जैसे हो महतारी.
कुछ मंद बुद्धि भी लोग होते हैं
धन के आतिलोभी वे होते हैं.
संकेत नहीं समझ पाते हैं वे
देते हैं उलटे प्रकृति को गारी.
एक रूप निखरता नया नया.
जब कषाय कल्मष गए बाहर
तब प्रकटी ज्योति एक नया.
नाम रूप है यह कल्याणकारी
जगपाले वह जैसे हो महतारी.
कुछ मंद बुद्धि भी लोग होते हैं
धन के आतिलोभी वे होते हैं.
संकेत नहीं समझ पाते हैं वे
देते हैं उलटे प्रकृति को गारी.
'अग्नि सोमात्मकं जगत' ही
इसका सर्जक-पोषक सिद्धांत.
कितनों को इसका सहजज्ञान?
इस संतुलन के पक्षधर कितने?
लगे है सब तिजोरी को भरने.
प्रकटी नवशक्ति, करती संहार
यहाँ विकृति फैलाने वालों का.
देती सुरक्षा- संरक्षा और अभय
सन्मार्गी को और निर्मात्री को.
इसी शक्ति का नाम है -'दुर्गा'.
जिसकी चर्चा विषद, संस्कृति में
रखनी है सुरक्षित अपनी संस्कृति
सब कुछ निहित इस संस्कृति में.
रही तप्त धरा यह अरबों बरस
लाखो बरस हिमयुग भी रहा.
जिस धरा पर हम रहते आज.
क्या-क्या दुर्दिन उसने न सहा.
कहना दुर्दिन शायद ठीक नहीं,
यद्यपि दुर्दिन सा ही लगता है.
जब आती विपदा मानव पर
दुर्दिन ही उसे वह कहता है.
सिखाती यह संस्कृति अपनी
जहां रहो, वहीँ बन श्रेष्ठतर रहो.
श्रेष्ठतम को कहा गया 'अवतार'.
मत्स्य बना, यहाँ प्रथम अवतार
जो जल जीवन का श्रेष्ठतम जीव.
धरा ठंढी जब कुछ रहने लायक.
उभयचर ‘कच्छप’ दूजा अवतार.
तीसरा वाराह, चौथे नरसिंह में
क्रमशः चेतना का ऊर्ध्व विकास.
लघुरूप थी जब मानवीय चेतना
उसको ही वामन का रूप कहा.
फिर काल क्रम से परशुराम
और ‘राम’ ‘कृष्ण’ आदर्श रहा.
पूजा था राम ने ‘इसी शक्ति’ को
रामेश्वरम - शिवम को पूजा था.
‘शिव’ और ‘शक्ति’ के अतिरिक्त
दृष्टि में श्रेष्ठतर न कोई दूजा था.
यह देवी है श्रीकृष्ण से संस्तुत
त्रिदेवों की भी यही मूलशक्ति है.
यहशक्ति अलौकिक मूल तत्व है.
देखी गुरुनानक ने यह शक्तिचेतना,
औ देखा 'अरबत खरबत धूंधुकारा'.
धूं-धूंकारी कालिमा की व्याख्या में
'गुरुग्रन्थ' संश्लिस्ट सबद हुआ सारा.
कबीर- रैदास ने देखा सूक्ष्मरूप में
तुलसी-सूर-मीरा डूबे इस समष्टि में.
इसी देवी से ही बर माँगा था यह,
इसका सर्जक-पोषक सिद्धांत.
कितनों को इसका सहजज्ञान?
इस संतुलन के पक्षधर कितने?
लगे है सब तिजोरी को भरने.
प्रकटी नवशक्ति, करती संहार
यहाँ विकृति फैलाने वालों का.
देती सुरक्षा- संरक्षा और अभय
सन्मार्गी को और निर्मात्री को.
इसी शक्ति का नाम है -'दुर्गा'.
जिसकी चर्चा विषद, संस्कृति में
रखनी है सुरक्षित अपनी संस्कृति
सब कुछ निहित इस संस्कृति में.
रही तप्त धरा यह अरबों बरस
लाखो बरस हिमयुग भी रहा.
जिस धरा पर हम रहते आज.
क्या-क्या दुर्दिन उसने न सहा.
कहना दुर्दिन शायद ठीक नहीं,
यद्यपि दुर्दिन सा ही लगता है.
जब आती विपदा मानव पर
दुर्दिन ही उसे वह कहता है.
सिखाती यह संस्कृति अपनी
जहां रहो, वहीँ बन श्रेष्ठतर रहो.
श्रेष्ठतम को कहा गया 'अवतार'.
मत्स्य बना, यहाँ प्रथम अवतार
जो जल जीवन का श्रेष्ठतम जीव.
धरा ठंढी जब कुछ रहने लायक.
उभयचर ‘कच्छप’ दूजा अवतार.
तीसरा वाराह, चौथे नरसिंह में
क्रमशः चेतना का ऊर्ध्व विकास.
लघुरूप थी जब मानवीय चेतना
उसको ही वामन का रूप कहा.
फिर काल क्रम से परशुराम
और ‘राम’ ‘कृष्ण’ आदर्श रहा.
पूजा था राम ने ‘इसी शक्ति’ को
रामेश्वरम - शिवम को पूजा था.
‘शिव’ और ‘शक्ति’ के अतिरिक्त
दृष्टि में श्रेष्ठतर न कोई दूजा था.
यह देवी है श्रीकृष्ण से संस्तुत
त्रिदेवों की भी यही मूलशक्ति है.
यहशक्ति अलौकिक मूल तत्व है.
देखी गुरुनानक ने यह शक्तिचेतना,
औ देखा 'अरबत खरबत धूंधुकारा'.
धूं-धूंकारी कालिमा की व्याख्या में
'गुरुग्रन्थ' संश्लिस्ट सबद हुआ सारा.
कबीर- रैदास ने देखा सूक्ष्मरूप में
तुलसी-सूर-मीरा डूबे इस समष्टि में.
इसी देवी से ही बर माँगा था यह,
दशमेश गुरुगोबिंद सिंह जी ने -
'देहु शिवा बर मोहि इहै
'देहु शिवा बर मोहि इहै
शुभ कर्मन ते कबहूँ न टरों'
फिर भी मानव मन चंचल है,
टरता है- सत्कर्मों से आज,
मनमानी खूब करता है आज .
नवरात्रि पर्व है- ‘शोध कार्य की’.
प्रकृति सिद्धांत को जानने की.
संस्कृति को पहचानने की.
दायित्वों पर डट जाने की.
मानवता को कर अंगीकार,
पूर्ण मानव बन जाने की.
फिर भी मानव मन चंचल है,
टरता है- सत्कर्मों से आज,
मनमानी खूब करता है आज .
नवरात्रि पर्व है- ‘शोध कार्य की’.
प्रकृति सिद्धांत को जानने की.
संस्कृति को पहचानने की.
दायित्वों पर डट जाने की.
मानवता को कर अंगीकार,
पूर्ण मानव बन जाने की.
तो क्या भैया यह माना जाय
सोची आपने कदम बढाने की.
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
तिवारी सदन
भरसर, बलिया (उ.प्र.)
संपर्क: 9450802240
संपर्क: 9450802240
सार्थक और सुंदर रचना .....
ReplyDeleteशुभकामनाएं...
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