विचार तबतक पल्लवित–पुष्पित नहीं होते जबतक रचनाकार
की अपनी कोई निजी सोच–संवेदना
और दार्शनिक चिंतन नहीं होता.दर्शन और चिंतन का आधार वही सोच, सिद्धांत और विमर्श
होता है. रचनाकार अपनी कल्पनाशीलता द्वारा इस सिद्धांत को समाजोपयोगी बनाकर सृजन
और विकास हेतु जन मानस के समक्ष प्रस्तुत करता है. डॉ. रमा द्विवेदी जी के अन्दर
ये सारी विशेषताएं सुदृढ़ और सतर्क रूप में सतत उपस्थित हैं. इस प्रकार “रेत का समन्दर’ में संकलिर रचनाओं के आधार पर
यह कहना पड़ेगा कि डॉ. रमा द्विवेदी के अंतर्मन में बहुयामी संवेदनाओं-प्रकाल्पनों
की तरंगों का ज्वार-भाटा रह-रह कर उबाल मारता है और सुदूर किनारे तक अपनी
छाप छोड़ जाता है. इस चिंतन-वृक्ष की डाली-डाली, शाखा-प्रशाखा, पल्लव-पुष्पों से भी
चिंतन ध्वनि निःसृत होती है लेकिन उन सभी में उसी जड़ का चिंतन रस है जो कवयित्री
के अन्दर हिलोरें मारता रहता है. शाखा की तरह तरुवर की जड़ें भी जमीं की अंतर गहराई
से जीवनद्रव्य अवशोषित करती हैं तो कभी
उपनिषद् के ‘ऊर्ध्वमूलं
अधोशाखा’ की तरह शून्य गगन से भी
प्राण तत्व अवशोषित करती हैं. पृथ्वी सतह से शून्य गगन के बीच ही प्रायः मानव का
सारा जीवन व्यापर है. मानव समाज के प्रायः सभी क्रिया-कलापों से कच्चामाल संवेदना
के रूप में ग्रहण करके, समीक्षा के परिपक्व आंच पर पकाया है यह एक ऐसा साहित्यिक
डिश है जिसमे ‘शहद
और लवण’, ‘मधुरता और तीक्ष्णता’ सब साथ-साथ हैं.जीवन ये विविध
रंग-रूप और स्वाद ही इस काव्य-ग्रन्थ का सौन्दर्य भी हैं और उपयोगिता भी. इस
ग्रन्थ के इसी सौन्दर्य और उपादेयता पर एक दृष्टि डाली जाएगी विभिन्न उप-शीर्षकों
के रूप में जिससे सपच के वैशिष्ट्य के साथ-साथ सामाजिक जीवन में इस काव्य ग्रन्थ
की उपयोगिता का निर्धारण किया जा सके.
शीर्षक विचार:
कवयित्री डॉ. रमा द्विवेदी ने इस काव्य
ग्रन्थ का नाम रखा है – ‘रेत का समन्दर’. समुद्र में
तो जल होता है, रेत उसकी तलहटी में होता है. लेकिन ‘रेत का समन्दर’, इसका क्या अर्थ? हां, अर्थ है इसका- व्यंजनात्मक अर्थ, और
हमे उसी रूप में इसे देखना भी चाहिए. यहाँ ‘रेत’ शब्द महत्वपूर्ण है जिसके विशेषण के रूप में ‘समन्दर’ शब्द का प्रयोग हुआ है.
रेत वे बालुका-राशियाँ हैं जो जहाँ पर है विपुल मात्र में हैं- एक समन्दर की तरह
असीम, जहाँ तक दृष्टि जाती है, रेत ही रेत ..., लेकिन एकल रूप में. एक दूसरे से
सर्वथा पृथक-पृथक. मृत्तिका की तरह इनमे आपसी स्नेह-लगाव-जुड़ाव-मैत्रीभाव जैसा
संवेदनात्मक गुण नहीं होता; यद्यपि साथ-साथ रहना इनकी नियति है, विवशता है, इसलिए साथ
में रहते हैं. आज मानव की भी यही दशा है. समाज में रहता है लेकिन आत्मीयता के
बंधन, सामाजिक सौहार्द्र-बंधन, पारिवारिक दायित्व-बंधन, ये सम अब उसे स्नेहडोर से
बाँध नहीं रहे. वह रेत सा एकल सोच और एकल व्यवहार का बनता चला जा रहा.उसकी अपनी
कोई सांकृतिक आकर्षण बंधन भी नहीं. जैसी हवा बहती है, जिस दिशा से बहती है, उसी के
अनुरूप वह बहता हुआ -उड़ता हुआ, विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ-प्रवृत्तियों का
निर्माण करता रहता है. कभी वे आकर्षक भी लगती हैं कभी विकृत भी. कवयित्री की मूल
पीड़ा यही है जो चिन्तनशील ‘रेत’ और मानव समाज को ‘रेत का समन्दर’ कह बैठतीं हैं.
यही ध्वन्यार्थ उनकी रचनाओं से भी प्रस्फुटित हैं. वे स्वीकार करती हैं – “जिंदगी कभी उपवन में खिले रंग विरंगे फूलों की
तरह होती हैं तो कभी जिंदगी में विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, विभीषिकाओं का
अंधड़-तूफ़ान आ जाता है जिसमे जीवन के प्रति विश्वास-आस्था-निष्ठां, प्रेम और सपने
बहुत कुछ टूट कर, विखर कर रेत का समन्दर बन जाता है”. लेकिन यहाँ जो बात विदुषी कवयत्री ने नहीं कहा, वह
है– पुनर्निर्माण की आस्था.
समन्दर का जल ही तेर कानों को भिगोकर उनमे आपसी एकता और संगठन की क्षमता विक्सित
करता है. भीगी रेत को आंधी-तूफ़ान उदा नहीं सकते, मनमानी सभ्यता-संस्कृति का
निर्माण नहीं कर सकते. और कल्पना कीजिये यदि इसी रेत और जल के साथ सद्विचार और
स्नेह का सीमेंट मिल जाय, तब? तब यही रेत पत्थर बन सकते हैं... सभ्य की अट्टालिकाए
तथा संस्कृति के पवित्र शिवालय का निर्माण कर सकते हैं. संसकृति के इसी शिवालय में
सत्यम के पुष्प, शिव को समर्पित होकर, जगत को प्रेम के सौन्दर्य से सुवासित कर सकते हैं; और इस प्रकार धारा पर ‘सत्यम’, ‘शिवम’ और ‘सुन्दरम’ के साम्राज्य की स्थापना में
संदेह नहीं. कवियत्री के अंतर्मन का यह भाव वंदना के रूप में इस काव्य-संग्रह की प्रथम
रचना में ही प्रकट हो जाता है –
विनती मेरी इतनी सी
माँ,
आशीष अपना दे दो माँ!
सत्यं शिवं सुन्दरम्
रचूँ
नमो नमामि, नमामि माँ!
कवियत्री के चिंतन का केन्द्रीय
विन्दु मानवीय संबंधों में अभीप्सा की कमी, मानवीय मूल्यों में गिरावट है – “मरुस्थल बने सम्बन्ध सब / आत्मीयता – स्नेह की
निर्झरिणी / सूख गयी है / स्नेहहीन रिश्ते / छटपटा रहे हैं / तपती रेत पर / एक
बूँद स्नेह की खातिर”. इस दृष्टि से काव्य-ग्रन्थ का शीर्षक ‘रेत का समन्दर’ सर्वथा उचित प्रतीत
होता है.
तत्त्व दर्शन:
कवियत्री का तत्वदर्शन
पारंपरिक सनातन मूल्यों और स्थापित औपनिषदिक दर्शन पर आद्धरित है जो आवर्त में गति
करता हुआ ‘सृष्टि
और प्रलय’ तथा ‘प्रलय और सृष्टि’ चक्र के बीच से गुजरता है.
कवियत्री ने प्रलय को ‘शून्य’ तथा सृष्टि को ‘अंक’ कहा है. उनकी अपनी अवधारणा है कि – ‘जीवन जब भी जटिल कठिन लगे / शून्य में
खो जाओ / शून्य से फिर आरंभ करो / जीवन को नई ऊर्जा / नई स्फूर्ति का अहसास /
शून्य को अंकों में बदल देता है’. यहाँ एक अन्तः चेतना जगी, नई स्फूर्ति का एहसास भी हुआ. शून्य! अरे
प्रलय ही तो शून्य है और सृष्टि है अंक. चाहे वह एक हो या अनन्त. मूलरूप में
संख्या केवल दो ही हैं- एक (१) और शून्य (०). समझने और समझाने की दृष्टि से
व्यावहारिक रूप में अनंत (∞)
को इसमें भी सम्मिलित किया जा सकता है. इससे सृष्टि की व्याख्या में सरलता होगी.
परमतत्व एक (१) है; तत्वरूप में भी और इकाईरूप में भी. इस
परमतत्व का प्रकटन और विलोपन होता रहता है. प्रकटरूप में वह अनंत है, गतिज ऊर्जा है और विलोपन (प्रलय) की स्थिति में वही शून्य है. प्रलयावस्था
में यह अनंत निष्क्रिय, अर्थहीन हो जाता है और केवल शून्य ही शेष
बचता है. इस स्थिति में कोई माप नहीं, कोई मान नहीं, कोई दृश्य नहीं, कोई सृष्टि नहीं, कोई दृष्टि नहीं, कोई द्रष्टा नहीं. परन्तु अस्तित्वाव्मान
का अस्तित्व है, मूलऊर्जा विद्यमान है- स्थितिज ऊर्जा के
रूप में. इसके अस्तित्व को नाकारा नहीं जा सकता. अरे ये सारे अंक तो ‘शून्य’ और ‘अनन्त’ के बीच का विवर्त है. शून्य के साथ अंक जुड जाने से वह भौतिक रूप से मूल्यवान–रूपवान हो जाता है. सगुण हो जाता है. यह सगुण तो निर्गुण में ही
प्रतिष्ठित है. मृत्यु इसी लिए बड़ी है,
किसी भी जीवन से. जीवन मृत्यु में ही विश्राम
पाता है और यह प्रकृति और सृष्टि प्रलय में, शून्य में. यही पुरुष और प्रकृति का खेल है.
समाज दर्शन:
किसी भी
तत्वदर्शन का महत्व उसकी सामाजिक उपादेयता, उसमे अन्तर्निहित सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति से है. सामाजिक
मनोभाओं, संवेदनाओं, परम्परों और रीति-रिवाजों के मूल्यांकन से है. इस दृष्टि से
डॉ. रमा द्विवेदी की संवेदना गहरे पैठ की रही है. बदलते समय में मानवीय संवेदनाओं
का कठोर बन जाना उनकी दृष्टि में मानवता के लिए घातक है तभी तो वे बोल उठती हैं – “रेखाओं की संवेदना को / कठोर न बनने दें /
नहीं तो मनुष्यता नष्ट हो जाएगी”. लेकिन सामाजिक मूल्यों का, परम्पराओं और व्यवस्थाओं का पालन
होना चाहिए. बेशक ये रेखाए लक्ष्मण-रेखा जैसी न हों, लेकिन रेखा, मूल्यपरक रेखा तो
होनी ही चाहिए. वही हमारी सभ्यता है, संस्कृति की पहचान है. कवियत्री व्यथित है- “आधुनिक घरों में / नहीं रही
दहलीज की परंपरा / इसलिए न कोई मर्यादा है / न जीवन आचरण के मूल्य”. और नई पीढ़ी दिग्भ्रमित हो भटक रही है / मूल्यहीनता की
दिशा में”. मूल्यों के टूटने पर
पहचान ध्वस्त होती है- जाति की, देश की, मानवता की. आखिर मूल्य स्थापित होने में
सहस्रों मनीषियों की उच्चतर मेधा और अरबों वर्ष का समय श्रम और तप लगा है. गहन
अनुसन्धान और शोध का परिणाम हैं ये मूल्य. इसलिए ये मूल्य अनिवार्य अंग हैं
मानवीय संवेदना के. उस प्रगति का क्या अर्थ जिसमे ये मूल्य ही ध्वस्त हो जाय?
मानवता पर ग्रहण लग जाय. क्या यह अधोपतन अभी कम है जहाँ पर- “अंग भी बिक जाते हैं / माया के दरबार में /
चीखों का कितना मूल्य है / साँसों के व्यापार में?”.
कवियत्री के अभिव्यक्ति की एक और विशेषता यह भी है कि वह एक ही साथ सामाजिकता की और समाज के परे अत्तिन्द्रिय जगत
की भी एक झांकी दिख जाती हैं. यदि प्रेम-प्यार और सौहार्द्र-श्रद्धा जैसे
भावनात्मक शब्दों को ही लिया जाय तो यह जितना आपसी रिश्ते लिए है, उतना ही राष्ट्र
के लिए है और उसके लिए भी जिसे हम अपना इष्ट मानते हैं – “आधुनिक प्यार के
मायने बदल गए हैं / प्यार अब निष्ठा विश्वास / का नाम नहीं / प्यार अब दिल बहलाने
का / झुनझुना बनकर रह गया है”. इस विन्दु पर वे केवल आलोचना ही नहीं करती, प्यार को
परिभाषित भी करती हैं – “प्यार एक संवेदना है / एक जज्बा, एक एहसास
है / जिसे संसार भर के / शब्दकोश भी परिभाषित नहीं का सकते”. आपसी संबंधों की प्रगाढ़ता, संवेदनाएं,
एहसास कितने खोखले गए हैं, कितनी औपचारिकता मात्र बनकर रह गयी है, वह भी दिखावे के
लिए. यह दर्द उनकी क्षणिकाओं में उभरकर आती हैं. अंतिम-साथ के रूप में इंसान अपने
शत्रु की भी शवयात्रा में सम्मिलित हो जाता है, पारिवारिक और मित्रों के लिए तो
अनिवार्यत रूप में आवश्यक है. लेकिन यह अनिवार्यता वाला एहसास भी टूट रहा है. हमारे पास रटारटाया एक
बहाना है समयाभाव का या आधुनिकता की यह दलील, कौन बैठे चिता के पास दो से तीन घंटे
तक? “इसलिए शव को / श्मशान घाट पर नहीं / क्रेमीटोरियम में जलाना चाहते हैं”.
इस संकलन में मात्र
आलोचनाएँ ही नहीं हैं, सृजनात्मक परिवर्तन के लिए प्यार और उल्लासभरा स्वागत भी है
जो उनके नव वर्ष गीतों में उभरकर आया है. कुलमिलाकर ‘रेत का समन्दर’ एक पठनीय और मननीय काव्य-ग्रन्थ
है. इब ग्रन्थ में उर्दू-फ़ारसी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा के शब्दों को भी
अभिव्यक्ति में सहायक बनाया गया है. हिंदी भाषा से इतर शब्दों का प्रयोग पाठक की
बढ़ोत्तरी की दृष्टि से, बोध की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से तो ठीक है, परन्तु यह वहीं
तक स्वीकार्य है जहाँतक साहित्य प्रभावित
नहीं होता. कहीं-कहीं ये शब्द साहित्य की दृष्टि से हिदी-काव्य के साथ न्याय करते
हुए नहीं लगते. हिन्द-युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली-१६ द्वरा आकर्षक रंगरूप में
प्रकाशित यह कविता-संग्रह एक माननीय और
पठनीय काव्य कृति है और समाज के प्रत्येक आयुवर्ग के लिए इसमें रोचक और सृजनात्मक
बातें हैं, इसमें कहीं कोई दुविधा और संसय नहीं है.
डॉ. जयप्रकाश
तिवारी
तिवारी सदन
भरसर, बलिया (उ.प्र.)
मो. ९४५०८०२२४०
आदरणीय डॉ . तिवारी जी ,
ReplyDeleteसादर नमन !
मेरे काव्य संग्रह `रेत का समंदर' की गहन ,सार्थक और सारगर्भित समीक्षा आपने लिखी उसे पढ़कर बहुत हर्षित हूँ ..मेरे पास शब्द नहीं हैं आपका आभार प्रगट करने के लिए ...मैंने तो सिर्फ कविता लिखी आपने अक्षरश: सारतत्व समझाया ...नतमस्तक हूँ आपकी गहन सोच ,चिंतन ,मनन के समक्ष ....सादर नमन ....