हे चिन्तक! तुझे प्रणाम!!, आज प्राप्त हुए,'अनुभूति के विभिन्न सोपान'.
चाहता हूँ उन्हें दीप मालाओं से सजा दूँ, क्योकि अब पूरे हुए मेरे अरमान,
होती है जब मन में हलचल, तो करती है यह यात्रा: संदेह से सत्य तक का.
देख गुरु-शिष्य बदलते समीकरण, आया याद 'समीकरण तम -प्रकाश का.
पूछता हू समीक्षकों- परीक्षकों से, आज के प्रखर चिंतकों से एक छोटा प्रश्न.
यह बसंत क्यों हुआ असंत? और कैसा होता है सितारों के उस पार का संसार?
यह बात शब्द सम्प्रेषण की है, अब करो चाहे मुखर हो के या मौन वार्तालाप.
अब बहुत हो गया , ज्यादा बक - बक मत करो, शब्दों को अपने सरल करो.
कहते हो तो मान लेता हूँ, मेरी बात भी मानो, अँधेरी गुफा को दीपक बना लो.
हिम्मत न हार, यदि चुनौती दे रही है रात, रे मन! अपना कदम बढ़ाओ तुम!
कमाल है, इस कविता की ऐसी महिमा, देखो गधे तक बन गए इंसान.
लेकिन आदमी, आदमी नहीं बन पाया, आखिर तड़प यह छोड़ दूं कैसे?
होती है जब मन में हलचल, उठते हैं भाव, होता है संवेदनाओं का उत्कर्ष.
प्रेम ही सृष्टि में गति का कारण, ऐसी ही है,यह प्रेम गति आदि से अब तक.
* डॉ. जय प्रकाश तिवारी
संपर्क:*९४५०८०२२४०
बहुत उत्तम ..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (07.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .. अवश्य पधारें और अपने कमेन्ट दें तभी अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग से जुड़ पायेंगे .. और वर्ड वेरिफिकेसन हटा दे कमेन्ट में असुविधा होती है ..
ReplyDeleteआभार सहित धन्यवाद.
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