Thursday, September 18, 2014

कविता को तुम शोर न कहो

कविता को तुम शोर न कहो
कविता यह कोई शोर नहीं है
हाँ इसकी ध्वनि दूर टक पहुचती है
जब जीवन की लय, जूनून की धुन पर
तर्कों के संबल में अंगड़ाई लेती है
तब बच्छों बुड्ढों में भी तरुनाई जगती है
उनके मानस में तीव्र हलचल मचाती है.
फी भी यह न शोर है न उन्मादिनी है
काव्य स्वर है अन्तः का ज्वर है
काव्य स्वर उन्मादिनी नहीं मन्दाकिनी है
यदि इसे शोर या शेर कहा भी जाय
तो यह उठकर अब थमने वाला नहीं
उर्मियों की तरह दम तोडनेवाला नहीं.
कविता हैलोजन की चकाचौंध नहीं
जो जली तो जली बुझी तो बुझी
और शेष रह गया वही घुप्प अँधेरा
काव्य शब्द-ज्योति है जो भाव प्रकाश फैलाती
एक लौ से सहस्र लौ जलती है और
देखते देखते भावों का मशाल बन जाती है
मशालची का यही हलचल
जब शब्दों में ढल जाता है तब
एक नूतन काव्य का सृजन हो जाता है
हाँ यह  है कविता कुछ करती नहीं 
परन्तु सब कुछ कराती तो वही है .

डॉ जयप्रकाश तिवारी

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