Sunday, November 16, 2014

कठघरे मे खड़ा हूँ मैं

कठघरे मे खड़ा हूँ मैं
मैंने पूछा- अरे न्यायविदों 
आरोप तो मुझे बता जा
आरोप लगा है मेरे ऊपर -
'टकेसेर भाजी, टकेसेर खाजा'
दृष्टि लौटाता हूँ..., तो पाता हूँ
कलयुगी इस माया नगरी मे
इस काया रूपी गगरी से
सचमुच, छलकी हैं बेहिसाब
'प्रेम की बुँदे', 'भक्ति के रस'
इन्हीं बूंदों को टपकाने का
सभी को प्यार का पाठ पढ़ने का
जनता को कर्मयोगी बनाने का
घोर-संगीन आरोप है मुझ पर,
हाँ, 'यह जुर्म स्वीकार है मुझे'
क्यों मुकदमा करोगे मुझ पर?
इस जुर्म की ही सजा है
यह बेचारगी, यह दीवानापन
यह बचकानापन, सयानापन
अब होश भी देखो, खो चुका हूँ
जब तुम लोग सो जाते हो
तभी मैं उठता हूँ यहाँ
तारों के संग बातें करता
उन्हीं के साथ ही खेलता हूँ
दीखता भेद नहीं, धूप-साये मे
मानता भेद नहीं अपने-पराए मे
इसी 'संमदर्शिता' का दोषी हूँ
विश्वसनीयता का आरोपी हूँ
कृतघ्नों की इस बस्ती मे
बस, कृतज्ञता का दोषी हूँ
'मरजीना' की चाहत मे
न जी पाया, न मर पाया
इसे पाने की चाहत मे ही
मर मिटने का, मैं दोषी हूँ॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी

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