Wednesday, June 24, 2015

सुनो सुनो मेरी अंतिम बात

स्मृति-सागर मे डूबते उतराते
आती है याद बहुत सी बातें
गति करना मानव स्वभाव है
घूमा करता नभ जल थल मे,
वह इससे भी आगे को जाता
चेतन मन व्ह, कहाँ न जाता?
मैं भी हूँ रहा प्रवाह नदी का
जाने किधर को जा रहा था
जलधारा तो बहती है नीचे
मैं ऊर्ध्व को जा रहा था ॥
सचमुच गिरा धँसा भी हूँ
धारा संग मैं कितना नीचे ,
सच से भी मुँह मोड़ना क्या
जो छोड़ दे उसे जोड़ना क्या?
पहुचा सागर तट जिसके साथ
छोड़ दिया उसने ही साथ
खुद तो हुई विलीन सागर मे
छोड़ गयी मुझे लहर के साथ ।
कब तक रहता साथ लहर के
लौटा वापस कराह कराह के,
लेकिन बीच धार मे हमने
अन्तः को भावों से सींचा
जो छूट गई थी भाव-वेदना
उन सबको मुट्ठी मे भींचा
जगी चेतना अन्तः की जब
तब नीचे को मैं क्यों बहता।
जग जाता है जब सोने वाला
प्रतिगामी वह दिशा बदलता
गंगा जाती गंगा सागर को
लेकिन मैं गोमुख जा पाहुचा ॥
  
आखिर इन अनुभूतियों को
कब तक रोके पास मे रखता
अनुभूति वही चाहती छलकना
इसलिए तुम्हें मैं आज पुकारता,
आओ बच्चों मैं तुम्हें सुनाऊँ
मन की बातें अब तुम्हें बताऊँ
तुम समझो, समझाओ यह बात
जो कुछ जाना वो गूढ सी बात।
इस सृष्टि की प्रथम रचना है जो
तुमको आज मैं सौपना चाहता।
खो न देना इसे, रहे इतना ध्यान
कह लो इसे वेद, निर्वेद या ज्ञान
ज्ञान विज्ञान का इति तो है ही
अथ से किया है आरम्भ जिसने
अर्थ से किया है प्रारम्भ जिसने
ताप से किया उसे दृढ़ है जिसने
त्याग से किया सुदृढ़ है जिसने  
सार तत्व जो भरा है इसमे
यह सारा जीवन खप जाएगा
पर हाथ बहुत थोड़ा आएगा ॥

कहता हूँ जो सुनो ध्यान से
सुनाता हूँ इसे बड़े अरमान से
बच्चे ही थे, जो समझ न पाये
तत्व सत्व को समझ न पाये
रह गए सिमट भौतिकता मे ही
वे आगे उसके, जा ही ना पाये
हुआ सीमित आचार भौतिकता मे
बीता जीवन सारा भौतिकता मे।
भौतिकता की इसी अधिकता ने
निकाला दिवाला नैतिकता की  
ऋषि – महर्षि फिर आगे आए
उपनिषद वेदान्त का पाठ पढ़ाये
ज्ञान – विज्ञान सब संग मे लाये
सभी ने सम्यक माप तौल कर
अपना अपना निष्कर्ष बताया
भौतिकता को ससीम बताकर  
अध्यात्म को नया राह दिखाया ।   
अध्यात्म का अर्थ, आत्म अध्ययन 
अध्यात्म का अर्थ, स्व को जानना
प्रकृति को जानना, प्रवृत्ति जानना
शिव को जानना, शक्ति को जानना
अणु को जानना, विभु को जानना
इसके परीक्षण – पुनर्परीक्षण मे ही
चिंतकों ने अपनी शक्ति गला दी,
हम रज्जु को सर्प मान बैठे हैं
इस गूढ रहस्य का भेदन करके
जटिल एक रहस्य  सुलझा दी।

ज्ञान तत्व जब शुष्क हुआ
तब भक्ति की धारा यहाँ बही
इस भक्ति धार मे बहते बहते
कुछ लोभी लमपट बन जाते हैं
कुछ बन जाते योगी - ध्यानी
कुछ कपटी कामी बन जाते हैं।
इतनी बात बता करके अब
आज तुम्हें मैं वेद सौप रहा
उपनिषद और वेदान्त सौपता
खुला गगन, इंद्र-धनुष सतरंगी
बादल और विद्युत तुझे सौपता
सोचो और समझो इसकी आवाज
सुनो इसके दर्द और करो इलाज,
तुम्हें पुराण, गुरु ग्रंथ सौपता
संगीत के सप्त स्वर’, राग
औ महेश्वर सूत्र मैं तुझे सौपता।
इसे मनन करोगे तब पाओगे
इसमे पूर्ण एक विज्ञान छिपा है
सीमित नहीं केवल अध्यात्म तक
सम्पूर्ण भौतिक विज्ञान छिपा है ।

आज भी मानव पहुँच सका नहीं
जहाँ पूर्वज तेरे पहुँच चुके हैं   
तू व्यथित न होने पाओ दुख से
अस्तु मैत्रेय बुद्ध तुझे सौप रहा
विचलित न होने पाओ भय से
वीरों का वीर महावीर सौपता,
न उठे द्वंद्व पूरब पश्चिम की
महर्षि अरविंद मैं तुझे सौपता
मानव से भी आगे बढ़ सको
अतिमानस दर्शन तुझे सौपता॥

खूब पढ़ो पाइथागोरस, न्यूटन को
खूब पढ़ो आइन्सरीन, हाकिन्स को
कामायनी, ऊरवाशी को भी पढ्ना
धार्मिक ग्रन्थों के साथ साथ ही
इस अग्नि की उड़ान भी पढ्ना,
पोंगा पंडित बनने से श्रेष्ठतर
अच्छा एक इंसान है बनना।
भाऊक होना है अच्छी बात, पर
भावना तो बहती हुई दरिया है
भवन नहीं बन सकता इस पर
यह जीवन इस पर लूट सकता है।
छत की हो यदि चाह तुम्हें तो
बुद्धि विवेक की बात मानना
अंध विश्वासी कभी न होना
अन्तर्मन के पट को खोलना ॥

मन की बात मे रंग जाओ
साहित्य, नाटक तुझे सौपता
फैले मानवता सारे जग मे
इसमे ऐसी ऊर्वर बीज रोपना,
अपने सपने को आकार दे सको
इसलिए तुम्हें मैं समय सौपता
कटुता घिस-धिस चिकना करना
यह असली रंदा तुझे सौपता  
नूतन जग का सृजन कर सको
यह चाक आज मैं तुझे सौपता  
दीपक – गागर - कुंभ बनाना
अंदर हाथ दे थाप लगाना
धीमी आंच पर उसे पकाना
रंग - रोगन से खूब सजाना
देखो ! उसे कभी मत देना
जो पैसे का रोब-दाब दिखावे
कार मे बैठ कर तुझे बुलावे
उसके झांसे मे कभी न आना
प्राथमिकता देना मन के भाव को
सीखो पहचानना मन के भाव को
नैतिकता का हर क्षण परिचय देना
संवेदनाओं का हरदम परिचय देना ॥

रहस्यमयी होता मानव मन
यह स्नेह-प्रेम का दम भरता है
लेकिन स्नेह डोर के टूटते ही
निकृष्ट सा रूप यह धरता है
ज्यों टूटा दर्पण सौन्दर्यमयी
घातक हथियार सा बनता है
जो ऐसे रंग रूप बदलता हो
हिंसा से भरा जो रहता हो
न स्नेह, मुहब्बत, प्रेम है वह
वह मन की विकृत वासना है
ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, वासना
इनसे दूर है तुमको रहना
प्रेम तो है एक साधना निर्मल  
तू प्रेम मे निर्मल ही रहना ।
आँसू न बहाना किसी के लिए
नहीं मूल्य वह इसका समझेगा
यदि मूल्य समझ ले आँसू का
यह अश्रु क्यों बाहर छलकेगा?
जैसा यह जग सौप रहा हूँ
इससे सुंदर सुखद जगत एक
तुम अगली पीढ़ी को सौपना
अंतिम शिक्षा तुम मेरी ले लो
आज तो मैं प्रस्थान कर रहा
दृग बंद किए विश्राम कर रहा
आश्वस्त हो प्रस्थान कर रहा ॥ 
डॉ जयप्रकाश तिवारी

          
 
  
















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