हाँ, कोई चाहे तो....
बकवास कह सकता है इसे,
इतिहास और दर्शनशास्त्र का
कोरा प्रलाप कह सकता इसे.
लिकिन है कितना आवश्यक
यह सांस्कृतिक ऐतिहासिक ज्ञान
शायद इसे वह नहीं जनता.
समय की गति नहीं पहचानता.
समय प्रदान करता है -
पर्याप्त अवसर परिष्कार का.
लेकिन है यह समय ही जो
क्षमा किसी को नहीं करता.
कोई भी ऐतिहासिक विवेचना,
दार्शनिक विमर्श, नहीं होता
कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसा.
होत है वह तार्किक विश्लेषण
किसी घटना के घटित होने का.
समाज और संस्कृति पर
उसके प्रभाव - दुष्प्रभाव का.
विवेचन यह, यह भी बतलाता
कितना कुछ सीखा समाज विशेष
क्या कुछ सीखना है अभी शेष.
आलोचक शायद नहीं जनता यह
हराना हो किसी देश को यदि,
मिटा दो उसकी अपनी संस्कृति
कर दो विकृत दार्शनिक प्रवृत्ति.
निकलते ही प्राण तन गिर जायेगा
वह देश अपने आप ही मिट जाएगा.
हमे प्यार है अपने देश और संस्कृति से
प्यार है ऐसी सांस्कृतिक परिचर्चाओं से.
किसी को इस से हो, न हो कोई सरोकार
जनता हूँ देश प्रेमिओं को है इसकी दरकार.
चाहे जितनी हो आलोचना, मुझे स्वीकार.
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